लेखकीय मन के बात

पंचतंत्र अउ हितोपदेश म ज्ञान के भण्डार भरे हे। कथा के जरिया; बिलकुल लोककथा के रूप म; विभिन्न पशु -पक्षी के अटघा (माध्यम ले) तरह-तरह के विशय आधारित ज्ञान ल व्यवहारिक ढंग ले प्रस्तुत करे गे हे; ज्ञान के ज्ञान, शिक्षा के शिक्षा , अउ मनोरंजन के मनोरंजन। एक कथा अइसन हे, –
चार भाई रहंय। तीनों बड़े भाई मन गुरू के आश्रम म जा के खूब पढ़िन-लिखिन। ज्ञान-विज्ञान, धर्म-अध्यात्म, संगीत आदि सोलहों कला, इतिहास, ज्योतिष, यंत्र-तंत्र-मंत्र आदि सबके ज्ञान प्राप्त करिन।
तीनों भाई मन किताबी ज्ञान म तो प्रवीण हो गें फेर जीवन अउ व्यवहार के ज्ञान म शून्येच् रहि गिन।
छोटे भाई ह गुरू के आश्रम म नइ जा पाइस, अपढ़ के अपढ़ रहि गे, न वेद के ज्ञान न शास्त्र के ज्ञान, फेर दीन-दुनिया के व्यवहारिक ज्ञान वोला खूब रिहिस।
बड़े भाई मन छोटे भाई के, अपढ़ अउ मूर्ख हे कहिके, खूब हिनमान अउ तिरस्कार करंय।
एक बेरा के बात ए ; चारों भाई मन जंगल के रस्ता कोनों गाँव जावत रहंय। जंगल म बघवा के हाड़ा-गोड़ा परे रहय। देख के बड़े भाई मन कहिथें – ‘‘अहा! देखो तो, कोन्हांे जानवर के कंकाल परे हे।’’
छोटे भाई ह कहिथे – ‘‘ये तो बघवा के हाड़ा-गोड़ा आय।’’
सबले बड़े भाई ह अपन ज्ञान के घमंड म कहिथे – ‘‘वाह! तब तो इही समय हे कि हम अपन ज्ञान के परछो कर सकथन। ईश्‍वर ह अच्छा मौका देय हे। मैं अपन ज्ञान से येती-वोती बगरे कंकाल मन ल सकेल के जोड़ सकथों।’’
छोटे भाई ह कहिथे – ‘‘येकर से का फायदा होही भइउा? समय के बर्बादी होही। घनघोर जंगल म जादा देर रूकना उचित नइ हे। जतका जल्दी हो सके, हमला जंगल ले निकल जाना चाही।’’
बड़े भाई मन ल अपन ज्ञान के बड़ा अहंकार रहय। छोटे भाई के बात ऊपर कोनों ध्यान नइ दीन।
बड़े भाई ह अपन मंत्र विद्या के बल से येती-वोती बगरे बघवा के हाड़ा-गोड़ा मन ल सकेल के जोड़ दिस।
मंझला भाई ह कहिथे – ‘‘मंय अपन विद्या के बल से ये कंकाल ल शरीर के रूप दे सकथंव।’’ मंत्र के बल से वो ह बघवा के शरीर ल ताजा कर दिस, मानो अभी-अभी प्राण त्यागे होय।
छोटे भाई ह फेर समझाइस। बड़े भाई मन के आँखी मन म तो ज्ञान के अहंकार के टोपा बंधाय रहय। छोटे भाई के बात ल अनसुना कर दिन।
अंतर मंझला भाई ह कहिथे – ‘‘मंय अपन मंत्र विद्या के बल से ये शरीर म प्राण फूंक सकथों।’’
अब तो छोटे भाई ह, अब का होने वाला हे, येला सोंच के कांप गिस। किहिस – ‘‘भाई! जइसे ये दूनों भाई के विद्या ह सच्चा हे वइसने तोरो विद्या ह सच्चा हे। मोला पूरा भरोसा हे कि तंय अपन विद्या से ये बघवा ल जिया डारबे। तब तो जीते सात ये बघवा ह हमला खा जाही। वो विद्या ह घला का काम के, जेकर से प्राण ह संकट म पड़ जाय, जी के जंजाल बन जाय?’’
छोटे के बात ल वो मन ह अपन विद्या के अपमान समझिन, नइ मानिन।
छोटे भाई ह कहिथे – ‘‘भाई हो! तुमला जउन करना हे करव, फेर पहिली मोला ये पेड़ म चढ़ जावन दव।’’ समय रहत छोटे भाई ह एक ठन पेड़ म चढ़ गे।
तीनों बड़े भाई मन के विवेक ल ज्ञान के अहंकार ह नष्‍ट कर दे रिहिस।
ज्ञान रूपी बड़े भाई मन ह विवेक रूपी छोटे भाई ल अपन ले विलग कर दिन। आदमी अउ पशु म विवेक भर के तो अंतर होथे।
अंतर मंझला भाई ह मंत्र पढ़िस। बघवा ह तुरते जी के ठाड़ हो गे। येकर पहिली कि वो तीनों विद्वान भाई मन कुछ समझ पातिन, कुछू कर पातिन, बघवा ह उन तीनों ल मार के खा गे।
बिना विवेक के ज्ञान ह अधूरा अउ अहितकर होथे।
साहित्यकार मन के अंदर आज भी ये चारों भाई ह मौजूद हे, पर विही साहित्यकार ह जीवित रहि सकथे जेकर ज्ञान रूपी बड़े भाई मन ह विवेक रूपी छोटे भाई के अधीन हो के सृजन करथंे।
साहित्यकार के पास एक ठन अउ उपरहा चीज होथे; जब वो ह कोनों रचना के सिरजन करथे त वोला वो ह कई तरह ले देखथे, नजीक ले देखथे, दुरिहा ले देखथे, आजू-बाजू ले देखथे, उलट-पलट के देखथे, अपन नजर से देखथे, दुनिया के नजर से देखथे। जउन ल वो ह दुनिया-समाज के हित म देखथे, वोला अउ सजाथे, जउन ह हितकर नइ होवय वोला छाँट देथे। सजाना अउ काँट-छाँट करना इही ह तो साहित्यकार के शिल्‍प आय।
साहित्य ह घला एक ठन ललित कला आवय। कला के लिये कल्पना के दरकार होथे। बिना कल्पना के साहित्यकार के, कलाकार के शिल्‍प ह अधूरा होथे। कल्पना ह जतका उड़ही, व्यापक होही, शिल्‍प म वोतके निखार आही। बिना कल्पना के कोनों भी कला के सिरजन संभव नइ हे। विचार अउ कल्पना ले ही तो साहित्यकार ह एक ठन नवा संसार के सिरजन करथे, एकरे से तो रचना म मौलिकता आथे, सौंदर्य आथे। बिना कल्पना के साहित्य ह साहित्य नइ बन सकय, इतिहास बन जाथे।
हर साहित्यकार ह निरंतर समाज रूपी जंगल म विचरण करत रहिथे, समाज हित के चीज के खोज अउ अन्वेषण करत रहिथे। अपन विवेकि से बरोबर, समाज हित के मरे, बगरे,-परे चीज मन ल सकेल के वोला नवा-नवा रूप देवत रहिथे; वोमा नवा प्राण फूंकत रहिथे।
ये कहानी संग्रह म कल्पना के अइसने एक ठन संसार हे जउन ह आप मन ल सुंदर घला लगही अउ सोंचे-बिचारे बर विवश घला करही।
ईश्‍वर स्वयं अमूर्त हे अउ वोकर बहुत अकन रचना मन घला अमूर्त हें। अमूर्त चीज, अमूर्त भाव मन ह, मन जइसे साधारण ज्ञानेन्द्रिय के पकड़ म नइ आय; मन से इनला अनुभव नइ करे जा सकय। ये मन ल अनुभव करे बर, जाने बर वो इन्द्रिय चाहिये जउन खुद अमूर्त होथे, जउन ल कहिथन दिव्येन्द्रिय। दिव्येन्द्रिय ह नासमझ मनखे अउ जन साधारण मन ल सहज-सुलभ नइ होवय, इही पाय के साहित्यकार मन ह यहू कोशिश करथें कि वो ह ईश्‍वर के अमूर्त रूप ल, अमूर्त रचना मन ल, अमूर्त भाव मन ल मूर्त रूप म जन साधारण के समक्ष पेश कर सकंय, ताकि येला अनुभव करे म आसानी हो सके। अवतार के अवधारणा अउ राम-कृश्ण म ईश्‍वर के दर्शन साहित्यकार मन के इही प्रज्ञा से संभव हो सके हे।
प्यार घला अमूर्त होथे; इही पाय के केहे गे हे कि ‘इष्क अहसास है ये रूह से महसूस करो…।’ प्यार जइसे अमूर्त चीज ल घला साहित्यकार मन मूर्त रूप प्रदान करे के कोशिश करथें ताकि जन साधारण येला समझ अउ परख सकंय, जीवन म निभा सकंय। इही कोशिश म कतको साहित्यकार मन ह, फिल्मकार मन ह तको, प्यार ल ले के एक से बढ़ के एक काल्पनिक अमर कथा के रचना करे हवंय। साहित्यकार मन ह मूर्त रूप, मूर्त भाव ल घला अमूर्त के रूप म प्रस्तुत करे के प्रयास करथें। मूर्त से अमूर्त अउ अमूर्त से मूर्त रूप म रुपान्तरण के इही प्रयास म कल्पना के बड़ सुघ्घर उपयोग होथे अउ इही प्रयास म साहित्य के सौंदर्य सिरजित होथे।
लोक साहित्य म घला कतको अइसनेच् कथा मिलथे; चाहे ये मन ल ऐतिहासिक कहन कि काल्पनिक कहन कि किवदन्ती कहन। इही प्रयास म हम सिरी-फरहाद, अउ हीर-रांझा के रूप म प्यार के मूर्त रूप ला अनुभव करथन।
हर समाज अउ हर लोक म हमला हीर-रांझा अउ शिरी-फरहाद के कहानी भरपूर मात्रा म मिल जाथे; राजनांदगाँव जिला के वनांचल म शिवनाथ नदी के उद्गम ल ले के विख्यात लोकगाथा ह घला अइसनेच् एक ठन कहानी आवय, एक ठन प्रयास आवय।
रचना प्रक्रिया ह प्रसव प्रक्रिया के समान होथे। कोई विचार या कोई कथानक ह कागज म तब तक आकार ग्रहण नइ कर सकय जब तक वो ह रचनाकार के मास्तिश्क म परिपक्व न हो जाय, पक न जाय। फर पाकथे तभे डारा ले गिरथे। पाकेच् फर म सुवाद अउ मिठास होथे। प्रकृति ह कभू आधा-अधूरा अउ अनुपयोगी चीज के रचना नइ करय। रचना प्रक्रिया के ये अवधि ह एक घंटा भी हो सकथे, एक साल भी हो सकथे अउ दस साल भी हो सकथे। दस साल से जादा घला हो सकथे।
ये संग्रह म शामिल आज के सतवन्तिन मोंगरा अउ कहा नहीं ये दूनों कहानी के कथानक मन ह मोर मन ल विगत पंद्रह-बीस साल से मथत रिहिन। येकर चर्चा मंय ह कई घांव ले डॉ. नरेश वर्मा अउ सुरेश सर्वेद के सामने कर चुके रेहेंव। ये रचना मन कहीं अब जा के आकार पाइन हें अउ आप मन के हाथ म हें। निर्णय आप मन करिहव कि ये मन कतका पूर्ण अउ उपयोगी हे।
हर रचना के पीछू एक उद्देश्‍य होथे; रचना पूर्ण होय के मतलब उद्देश्‍य के पूर्ण होय से समझना चाहिये।
ये तो भाषा के मजबूरी हरे, कि कहिथन कि कहानी ह पूर गे; पूरा हो गे। सच तो ये हरे कि कहानी ह कभू पूरा नइ होवय। दुनिया के जतका श्रेश्ठ कहानी हें, कोनों पूरा नइ हें। कफन ल का कोई पूरा कहानी कहि सकथे?
आज के सतवन्तिन: मोंगरा के रचना छत्‍तीसगढ़ म प्रचलित एक लोक कथा ल आधार मान के नारी विमर्श के आधुनिक संदर्भ के साथ करे गे हे। भले ही छत्‍तीसगढ़ी समाज म दहेज ल ले के नारी मन ऊपर अत्याचार के घटना अभी अन्य समाज के तुलना म कम हे, फेर सर्वथा मुक्त नइ हे। बहू ल बेटी के रूप म स्वीकार्यता के मामला म सब समाज ह एके जइसे हें ।
कहा नहीं कहानी म छत्‍तीसगढ़ के जीवन-दायिनी नदी शिवनाथ के उद्गम ल ले के राजनांदगाँव जिला के वनांचल म प्रचलित किवदन्ती (लोककथा) ल आधार बना के छत्‍तीसगढ़ के नारी हृदय के पवित्र प्रेम ल, छत्‍तीसगढ़ के नारी के दिव्यता अउ अस्मिता ल अभिव्यक्ति करे गे हे। प्रेम के पवित्रता ल अनुभव करे के कोशिश करे गे हे। प्रेम ल मूर्त रूप म समझे के प्रयास करे गे हे।
प्रेम ह आत्मा के जरिया अनुभव करे के विशय आय, मुँह से कहना जरूरी नइ हे।
लोक के पास लोककथा अउ लोकगाथा के खजाना रहिथे। बहुत अकन लोककथा ह अइसन हे कि बोली-भाषा , देश-काल अउ सामाजिक संरचना के अनुसार थोड़-बहुत अंतर के साथ व्यापक रूप से सब तरफ मिल सकथे। कुछ लोकगाथा के साथ घला अइसने होथे; जसमा ओड़निन, नल-दमयंतिन, ढोला-मारू आदि लोकगाथा ह येकर उदाहरण आय; पर कुछ लोकगाथा ह अइसन हे जउन ह केवल लोक विशेष म ही प्रचलित रहिथे; शिव-नाथ के लोककथा ह अइसने हरे।
संग्रह म बरनित शिव-नाथ के लोककथा ल लोक म प्रचलित स्वरूप म ही रखे गे हे, येकर पीछू कोनों किसिम के कोई षोध नइ करे गे हे। कथा के प्रमाणिकता के संबंध म मोर कोई आग्रह नइ हे। वइसे भी लोक प्रचलन म पात्र के नाम अउ घटना क्रम म भिन्नता होना स्वभाविक हे, पर कथा के आत्मा, वोकर मूल स्वरूप ह विहिच रहिथे।
कहानी अउ इतिहास के विशय म एक ठन ऊक्ति प्रचलित हे कि कहानी म पात्र अउ देश-काल-परिस्थिति के अलावा सब प्रमाणिक होथें जबकि इतिहास म पात्र अउ देश-काल-परिस्थिति के अलावा सब अप्रमाणिक होथें; आप मन खुद विचार करके देखव।
साहित्यकार ह विही ल लिखथे जउन ल समाज म अनुभव करथे, घटित होवत देखथे, तब वो ह काल्पनिक कइसे हो सकथे?
आज के सतवंन्तिन: मोंगरा अउ कहा नहीं, ये दूनों कहानी मन आकार म कुछ बड़े हें, पर मोला विश्‍वास हे, जब आप इनला पढ़े के सुरू करहू ते उरकाय बिना बंद नइ करहू।
संग्रह के अन्य कहानी मन के पीछू भी कोई न कोई उद्देश्‍य नीहित हे। आशा हे आप मन ल जरूर पसंद आही।
कहानी के भाषा ल आम बोल-चाल के भाषा के अनुसार रखे के प्रयास करे गे हे। मोर मत हे कि छत्‍तीसगढ़ी भाषा के ध्वनि अउ उच्चाण के फेर म पड़ के तत्सम शब्द मन के वर्तनी मन ल न बदले जाय। जइसे – शब्द ल सब्द अउ ऋषि ल रिसी न करे जाय। हिन्दी बोलइया मन घला ऋ, ष अउ ः के सही उच्चारण नइ करंय तभो ले ऋि‍षि ल रिशी कोनों नइ लिखंय, दुःख ल दुख अउ अतः ल अतह कोनों नइ लिखंय। तत्सम शब्द मन ल जस के तस लिखे के ये परंपरा ल छत्‍तीसगढ़ी म घला अपना लेना मोला उचित लगथे।
कहानी के रचना करत खानी बीच-बीच म वरिष्‍ठ साहित्यकार, संपादक अउ आलोचक श्री दादू लाल जोशी ‘फरहद’ के अमूल्य सुझाव मिलत गिस, जोशी जी के मंय हृदय से आभारी हंव। हमर छत्‍तीसगढ़ के नामी साहित्यकार डॉ. विनय कुमार पाठक अउ प्रयास प्रकाशन के घला मंय जनम भर आभारी रहूँ। हमर छत्‍तीसगढ़ के प्रसिद्ध गीतकार डॉ. जीवन यदु ‘राही’ अउ श्री मुकुंद कौशल, साहित्य अउ भाषा के मर्मज्ञ, छत्‍तीसगढ़ी ‘माटी महतारी’ के सुप्रसिद्ध कवि, प्राध्यापक डॉ. नरेश कुमार वर्मा के स्नेह-दुलार, सलाह अउ सुझाव खातिर मंय सबर दिन बर इँखर हिरदे ले आभारी बने रहना चाहहूँ। आभारी अउ आभार के सब बात व्यवहारिक ए, सच बात ये हरे कि मोला तो ये मन भाई समान मया करथें, दुलार देथें, सहीं मारग दिखाथें; मोला तो इंखर मया-दुलार के हक बनथे।

000

कुबेर

Related posts